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सुनहरी आभा / महेन्द्र भटनागर

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छिपा चाँद काले उमड़ते घनों में,
उठी प्रबल झंझा लहरते बनों में !

गरजता गगन है,
हहरता पवन है !

कि कितनी भयानक
अँधेरी-घनेरी अकेली निशा है,
कि कितनी भयानक
हमारे विजन-पंथ की हर दिशा है !

हमें पर उसे भी सरलतम समझकर,
बितानी सबल बन व हँस कर निरन्तर !

नहीं है समय स्वप्न को हम निहारें,
नहीं है समय रूप को हम सँवारें,
नहीं है समय जो कहीं पर रुकें हम,
नहीं है समय साँस ही ले सकें हम,
निरन्तर प्रगति ध्येय होगा हमारा
पहुँचना जहाँ श्रेय होगा हमारा
सबेरा तभी प्रेय होगा हमारा !

उषा की चमकती हुईं
लाल किरणें मिलेंगी,
नयी ज्योति ऐसी
कि हिल-हिल
सरल नेह कलियाँ खिलेंगी,
व जीवन हमारा
बदलता चलेगा,
समुन्दर हृदय का
लहरता चलेगा !
कि आभा सुनहरी
नयी सृष्टि सारी,
हमें फिर प्रकृति
नव दमकती दिखेगी,
सुखद भाव सुंदर
चमकती दिखेगी !