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मन अश्व / उर्मिल सत्यभूषण
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तर्क के चाबुक लगा दो तीन-चार
रोकती हूँ मन अश्व को बार-बार
पर हठीला बाबला रूकता नहीं
उड़ता रहता पवन पंखों पर सवार
दस दिशायें घूम आता यह
चैनपगला फिर न पाता यह
अनजान सी अनबूझ सी
किसी खोज में
उड़ता जाता पर परी सा
पर पसार
क्या करूँ वल्गा छुड़ाकर भागता है
क्या करूँ मुझको गिराकर भागता है
मार दूं तो सजल दृष्टि चीरती है
प्राप्य अपना माँगती
कातर पुकार
बहुत समझाती हूँ उसको तर्क देकर
बहुत दुलराती हूँ अपना नेह देकर
दंड भी देती ही रहती हूँ प्रायः
किन्तु शठ वह, खोज उसकी
दुनिर्वार।