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स्नेह की वर्षा / महेन्द्र भटनागर

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मेरे स्नेह की वर्षा !
नहा लो
त्रस्त प्राणों के उबलते ज्वार,
कर लो शांत जीवन के
धधकते लाल सब अंगार !
मेरे प्यार की वर्षा !

घुमड़ कर हिन्द सागर से
सजल बादल
घिरे नभ के किनारों तक,
बढ़े शीतल पवन के साथ
करने शक्ति भर दृढ़ वार,
ऊँचे दुःख से निर्मित
हिमालय से बने पर्वत !
अभागे देश के ऊपर
कि मूसलधार जल-वर्षा !
नहा लो
त्रस्त प्राणों के उबलते ज्वार,
मेरे स्नेह की वर्षा !

उठी हैं अग्नि की लपटें प्रखर
है सिन्धु-गंगा भूमि उर्वर
बंग श्यामल कुंतला धरणी
झुलस आहत
गगन से याचना कर आज
जीवन माँगती है
नाश-सीमा पर खड़ी होकर !
तुम्हारे बिन्दु दो केवल
हिला शव को जगा देंगे,
बरस लो आज
देकर पूर्ण अपने स्नेह-कण
निर्मल, सजल, कोमल !
सरल अनुराग की वर्षा !
कि मूसलधार जल-वर्षा !
नहा लो
आज जीवन के
मलिन सब भाव धो डालो !
युगों से त्रस्त
पीड़ा ग्रस्त
मेरे देश के मानव !
सहे तुमने
अनेकों युग दमन के,
वेदना निर्मम जलन के,
आग में झोंके गये
तृण से जले,
अपमान क्या ?
सब लूट कर भी ले गये
कटु आततायी क्रूर,
हँसते व्यंग्य से हो दूर !
जिनने कर दिया है
देश की प्रत्येक जर्जर झोंपड़ी का
चोट से प्रति अंग चकनाचूर !
मेरे स्नेह की वर्षा,
नहा लो
त्रास्त प्राणों के उबलते ज्वार !
मेरे प्यार की वर्षा,
मेरे स्नेह की वर्षा !