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डोर पकड़े आस की / प्रेमलता त्रिपाठी

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नौका बढ़े सदभाव लेकर डोर पकड़े आस की।
मनमें जगायें भाव निर्मल कामना विश्वास की।

होगी अधूरी साधना हरि के बिना आशीष के,
पावन पुनीता प्राण मीरा प्रीति बनती दास की।

छल छद्म कंटक हार जीवन है हृदय लघुता कहें
मिलते कहाँ फिर श्याम प्रियवर मीत बन उल्लास की।

राहें मिला करती वहीं मृदुता सरस सौहार्द हो,
हरले तमस अज्ञान आशा जागती नव न्यास की।

माटी कलश या स्वर्ण यदि शीतल नहीं अवधारणा,
साधक नहीं वह स्वर्ण भी बाधा मिटा दे प्यास की।