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पाप का संगम बनाया / प्रेमलता त्रिपाठी

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धरा को पाप का संगम बनाया।
अरे! मानव न तू अब भी लजाया।

रही यह राम की धरती जहाँ पर,
अनैतिक कर्म को प्रतिदिन बढ़ाया।

मधुर बंसी न मोहन अब सुनाते,
नहीं घनश्याम जैसा मित्र पाया।

विधर्मी कर रहे जीवन भयावह,
कहाँ हो शिव गरल जिसमें समाया।

विकल वसुधा लगी है आग चहुँ दिक,
तुम्हारा आगमन सावन सुहाया।

रहा अवशेष जो उसको बचा लो,
सदा से स्नेह ने दीपक जलाया।

बहाओ प्रेम की गंगा तनिक तुम,
मिलेगा पुण्य यदि हमने कमाया।