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बचपन / प्रेमलता त्रिपाठी
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सुंदर मोहक, बचपन तरती, नाव चली।
हँसता जीवन, खन-खन करती, नाव चली।
कितनी आशा, पलकों में है, आन बसे,
छम-छम छलकी, बूंदें रुकती, नाव चली।
पार लगाना, कागज तरिणी, आज इन्हें,
भार उठाते, काँधें झुकती, नाव चली।
राह दिखाते, पतवार वही, स्वयं बने
कुछ आगे, कुछ पीछे लगती, नाव चली।
लौट न आये, फिर से बचपन, रास लिए,
खो जाता मन, आँगन रचती, नाव चली।