मन मंदिर अब तुम्हें बसाकर, प्रियतम रूठ नहीं पाती।
दिन तो सब को किया समर्पित, रात लेखनी जग जाती।
रात चाँदनी झिलमिल तारे, दूर नगर हमको जाना,
निशा खुमारी नींद न आये, चली गगरिया छलकाती।
शब्दों का अभिसार करूँ ले, मुक्ता अक्षर अँगड़ाई,
बनी गीतिका मान करे तब, हृदय मोहनी इठलाती।
जीवन पथ अब सजा रही है, विभा बढ़ाती यह बाला,
सोते नाहर जाग उठेंगे, वाणी से यह उमगाती।
कभी लगाये तिलक सिंदूरी, खुले केश भी लहराये,
अंग-अंग लावण्य जगाकर, भोला मुखड़ा, सकुचाती।
फूलों के गजरे में गूँथे, सुचि सुंदर मोहक आखर,
नगर डगर पर चली झूमती, तन मन को है महकाती।
प्रेम नगरिया घनी सुहानी, सेवा का अवसर पायें,
नये दौर में सब मिल अपने, हाथ बढ़ाना समझाती।