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नयी नारी / महेन्द्र भटनागर

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तुम नहीं कोई
पुरुष की ज़र-ख़रीदी चीज़ हो,
तुम नहीं
आत्मा-विहीना सेविका
मस्तिष्क हीना-सेविका,
गुड़िया हृदयहीना !
:
नहीं हो तुम
वहीं युग-युग पुरानी
पैर की जूती किसी की,
आदमी के
कुछ मनोरंजन-समय की
वस्तु केवल !
:
तुम नहीं कमज़ोर,
तुमको चाहिए ना
सेज फूलों की !
नहीं मझधार में तुम
अब खड़ी शोभा बढ़ातीं
दूर कूलों की !
:
अब दबोगी तुम नहीं
अन्याय की सम्मुख,
नयी ताक़त, बड़ा साहस
ज़माने का तुम्हारे साथ है !
अब मुक्त कड़ियों से
तुम्हारे हाथ हैं !
तुम हो
न सामाजिक न वैयक्तिक
किसी भी क़ैदखाने में विवश,
अब रह न पाएगा
तुम्हारे देह-मन पर
आदमी का वश
:
कि जैसे वह तुम्हें रक्खे
रहो,
मुख से न अपने
भूल कर भी
कुछ कहो !
जग के
करोड़ों आज युवकों की तरफ़ से
कह रहा हूँ मैं —::
‘तुम्हारा ‘प्रभु’ नहीं हूँ,
हाँ, सखा हूँ !
और तुमको
सिर्फ़ अपने
प्यार के सुकुमार-बंधन में
हमेशा
बाँध रखना चाहता हूँ !