रत्ना ! करना मुझे क्षमा / बीना रानी गुप्ता
पुत्रवधु हुलसी की
प्रिया तुलसी की
कर रही स्वामी से प्रश्न
क्यों परित्याग किया मेरा?
क्या अपराध था मेरा?
पुत्र भी रूठा
बना नभ का तारा
जीवन हुआ अभिशप्त
छिन गया हर सहारा
भूल गए सप्तपदी
अग्नि की हवि
सौगंध खाई थी कभी
पति का पथ बनता सदा
पत्नी का पाथेय
क्यों नहीं देते मुझे आश्रय?
तुम साधक बनो
मैं साधिका बनूँ
मैं मनु की शतरूपा सी तपूँ
रामसेवक की सेविका सी
राम में ही रमूँ
छाया-सी साथ चलूं स्वामी
फिर क्यों मेरा त्याग स्वामी
रामचरितमानस रचा
उत्तरकांड में सीता को
राम से नहीं पृथक किया
फिर किस अपराध का
दण्ड मुझे दिया
भर गयी तुलसी की आँखें
वाणी रह न सकी मौन
रूंधे कंठ से फूटे शब्द
मैंने अन्याय किया तुमसे
पर प्रभु राम कैसे
अन्याय कर सकते थे?
रत्ना मैं तुम-सा दृढ़
वैरागी नहीं तुम-सा गुरू पा
मैं हुआ धन्य
सदैव रहोगी वन्दनीय
मैं ऋणी हूँ तुम्हारा
मेरा अपराध नहीं क्षम्य
युगों-युगों तक रहेगा
रत्ना तेरा नाम अग्रगण्य।