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चरैवेति चरैवेति / बीना रानी गुप्ता

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समय की सुईं
घूम रही प्रति क्षण
कोणार्क के सूर्यमंदिर के
कालचक्र सी
सप्त अश्वों की लगाम साधे
सारथी अरूण
हाँक रहा रवि रथ
अश्वों की टापें
रच रहीं देववाणी में सप्त छंद
ध्वनित होती सर्वत्र
एक ही ध्वनि प्रतिध्वनि
चरैवेति चरैवेति...

नदी, ताल, तलैया
सागर की उत्ताल तरंगें
जल समेट रहे मेघ
उर्ध्वगामी हुए
प्रभंजन ने दिया झकझोर
मेघ बरस पड़े
गूँज रही एक ही ध्वनि
चरैवेति चरैवेति...

धरती की कोख से
फूटे अंकुर
मुस्कराए कोंपलें
तरू की शाख-शाख पर
भँवरे तितलियाँ
चूमें हर डाली-डाली
मधुमास की छटा
अजब निराली
गा रही कोकिल नवगीत
चरैवेति चरैवेति...
 
हुई सांझ
थका है तन
उदास हुआ मन
दायित्वों की गठरी का भार
पड़ रही जैसे दिलो दिमाग पर
चाबुक की मार
अनायास उतरा गगन में चाँद
नक्षत्रों के सुमन खिल उठे
बतिया रहे ऐसे
जैसे पुराने दोस्त हों मिले
कथाकार चंदा मामा
सुना रहा शिशु तारों को
नयी रची कहानी
चरैवेति चरैवेति...।