घर का पहिया
घूमे मेरे चहुँ ओर
ऐसी धुरी हूँ मैं
संतति हो रूग्ण
संतप्त या खिन्न
पथ के कंटक
बटोर लेती हूँ मैं..
सपनो के पंखों को
देती उड़ान
निराश मन को
देती मुस्कान
हर लेती हूँ सबकी थकान
ऐसी धुरी हूँ मैं..
रिश्ते-नाते कैसे निभते?
हर पल समझाऊँ मैं
पिता-संतति में हो मनमुटाव
दोनों का समझौता कराऊँ मैं
ऐसी धुरी हूँ मैं..
संतति मोह में बने धृतराष्ट्र
गांधारी सी समझाऊँ
स्त्रीहठ की चर्चा करें सब
पुरूष हठ से घर बचाऊँ
ऐसी धुरी हूँ मैं..
आफिस हो या घर
कोई समस्या लेती घेर
हो जाते सब परेशान
खोज लेती हूँ समाधान
प्रिय मुझ बिन अधूरे
घूमे मेरे चहुँ ओर
ऐसी धुरी हूँ मैं..
परम्पराओं की करूँ रखवाली
प्रगतिशीलता की ज्योति जलाऊँ
पुत्र-पुत्री में अंतर न मानूँ
प्रगतिपथ पर बढ़ें सभी
समर्पित करती तन मन धन
सारा जीवन कर देती अर्पण
ऐसी धुरी हूँ मैं।