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एक स्वप्न / बीना रानी गुप्ता

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मेरी आँखें
पलकों पर स्वप्न सजाए लेटीं थी
चेतना मुझसे बहुत दूर जा बैठी थी।
तभी लैम्प-सी जलती दो आँखें,
माथे पर रक्त तिलक लगाए
लपलपाती जिह्वा बाहर लटकाए
पीले दाँतों से वीभत्सता दर्शाती
शोणित वसन लपेटे
रक्तरंजित भुजा बढ़ाए
एक दैत्याकृति
मेरे निकट आयी
उसके भीषण अट्ठाहास से
मेरा तन-मन दहल रहा था
किन्तु वह मुझे
पल-पल मन ही मन में तोल रहा था।
मेरी घिघियाती मेमने-सी आँखें
प्रतिपल दयापात्र बनने को
तरस रहीं थी।
मेरी जडित वाणी
उससे प्रश्न कर रही थी।
तुम कौन हो ?
उसने प्रत्युत्तर में ठहाका लगाया
घिनौने मुख को खोल
मस्तक को गर्व से ऊँचा उठाया
और गुर्राया
मैं धर्म हूँ।
तभी मेरी तन्द्रा टूटी।
मिट गयी वह आकृति।
दूसरे क्षण
मुख पर मधुर हास
नयनों में चतुराई की घात
श्वेताम्बरों-सा मध्याह्न
कपोलों पर अरूणिमा का प्रात
नव यौवन को लेकर साथ
हाथों में सिक्कों की खनखनाहट लिए
एक युवा
मेरे निकट
प्रणाम मुद्रा में खड़ा हो गया
मैंने पूछा
तुम कौन हो ?
वह विस्फारित नेत्रों से कहने लगा
अरे! तुम मुझे नहीं जानती
इस धरा पर नहीं मैं अज्ञात हूँ।
सबका प्यारा भ्राता स्वार्थ हूँ।
कुछ अंतराल के बाद
फटे चिथड़ों से लिपटी
कुछ सहमी कुछ सिमटी
अनावृत श्यामल गात
नत-ग्रीव
झुकी कुछ कमर
कोटि-कोटि झुर्रियों से
मुख अंकित
तन से लहूलुहान
मुख पर दैन्य भाव
फेरने लगी सिर पर मेरे हाथ
मेरे प्रतिकार पर
कहने लगी यह बात
तू मुझे नहीं पहचानती
पर मैं हूँ तुझे जानती
क्योंकि मैं
तेरी माँ भारत माँ हूँ।