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तुम्हें याद करूँगा / स्वदेश भारती

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तुम्हें याद करूँगा
उम्र के कगार पर बैठ
दोपहर के सन्नाटे में,
सवेरे और शाम की सतरँगी किरणों में
तुम्हें याद करूँगा ।

जब मेरे हाथ-पाँव अशक्त होकर
पथ के दावेदार नहीं रहेंगे
रास्तों में घाटी पर उतरेगी शाम की पकी धूप
जब सवेरे और शाम की रोशनी मेरे लिए एक जैसी होगी
आँखें देख नहीं पाएँगी तुम्हारा हरी फ़सल-रूप
तुम्हें याद करूँगा ।

जिस तरह नदी के बहाव के नीचे
बहुत सारे अन्तर-प्रश्न छिपे होते हैं
बालू की सतह के नीचे पानी
और पत्थर के दिल में करुणा स्रोत फूटते हैं
मेरे दिल में
यादों का वसन्त फूलेगा
बार-बार लिखूँगा नई पत्तियों के मस्तक पर
तुम्हें याद करता रहूँगा ।

”’लीजिए, अब पढ़िए, इस कविता का अँग्रेज़ी अनुवाद”’
                   Swadesh Bharati
                  I will remember you

Sitting on the baks of the river of life
brooding on each day that has gone by
In the still of mid-day in the midst of myriad hues of the rays
mom and eve, every day, I'll
remember you, No doubt.

When my main limbs shall
Fail to tread on the path of life.
When the light of fading evening
Shall descend on the forests and path ways
when the light of morning
and evening shall appear just
the same for me
And my eyes shall fail to see
the splendor of beauty of your greenery
I shall remember you, no doubt.

As beneath the undercurrents of a river
Many inner questions remain concealed
As from under the sandy surface water gushes forth
And from a stony heart
Compassion springs out
So will the spring of memories shall bloom
in my heart reflected in silvery dew-drops
and repeatedly then I shall write on the surface of
new sprouting leaves
and go on and on remembering you, no doubt.