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महानगर में / विजया सती
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मैं खुश हूँ
कि राह चलते
मुझ से बतिया लेती है हवा
ले नहीं उड़ती शब्दों को
पर अर्थ समझ लेती है !
जिन बंधी यात्राओं का सिलसिला
ख़त्म होने में नहीं आता
वहाँ भी ख़ुश हूँ मैं
कितने धीरज से सहती हैं रोज़ मुझे
ये काली लम्बी सड़कें !
फिर ये घर-आंगन
खपरैल की टूटी छत
बिख़र गया है यहीं मेरा
हास-उल्लास-आक्रोश
इन्होंने भी नहीं बनाया
किसी बात का बतंगड़ !
भाग-दौड़ के शहर की
औपचारिक व्यस्तताएँ निभाते
किन्हीं आँखों में उभरी है जब
आत्मीय पहचान
मैं भरपूर जी ली हूँ!