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विशृँखला के बीच / स्वदेश भारती

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आज तो हर ओर शोर है
हर ओर उत्शृँखल शोर
नई-नई दावेदारी की आवाज़ें जुड़ जातीं
तनावग्रस्त चीखतीं-चिल्लातीं
दिन में भी ऐसा अन्धकार छा जाता
समझ में नहीं आता रात है या भोर
हर आदमी के सपने आहत हैं
उसका पथ रक्तरँजित है
लोभलाभी समय स्वार्थी राजनीति के कन्धों पर
अपनी प्रत्यँचा ताने
आम जन का शिकार करने के लिए उद्यत है
राजनीति हर तरह से
आजमाती है अपना ज़ोर...

आख़िर यह सिलसिला कब तक चलेगा
असहाय आमजन
कब तक अपना हाथ मलेगा,
अभावग्रस्त चिर-प्रगाढ़ निद्रा में सो जाएगा
इसी अमोघ निद्रा, असमर्थता, किंकर्तव्यविमूढ़ता के तईं
हम सदियों तक पराधीन रहे
ईरानी, अरबी, अफ़ग़ान, मँगोल, मुग़ल
घोड़ों के टापों से हमारी अस्मिता रौन्दते रहे
हमारी संस्कृति को पद दलित करते रहे
और बन गए शहंशाह
हम रह गए अघोर
आज भी पूरी आज़ादी के लिए उठ रहा शोर

कोलकाता, 22 अप्रैल 2013