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आदमी-औरत / स्वदेश भारती

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आदमी ने कहा — आओ चलें, आगे और आगे
औरत ने कहा— हाँ चलो, पर थोड़ा सुस्ता लें
नदी किनारे, पर्वत की छांव में
सागर-तट पर, वसन्त-कानन में ।

आदमी ने कहा — आओ चलें, आगे और आगे
औरत ने कहा — पहले जीवन के उन मधुर क्षणों को,
अपनी आकाँक्षाओं को मन से बान्ध लें
और यह देख लें कि कलियाँ भी
फूलती हैं किसी न किसी प्राप्य की इच्छा लिए

जो ऐसा नहीं करतीं, वही असमय कुम्हलाकर
वृन्त-विहीन हो जाती हैं
जो समय की ताल पर
नाचती हैं
यही समझ लो कि उनके भी
अभिराम स्वप्न जागते हैं

आदमी ने कहा— आओ चलें, आगे और आगे
औरत ने कहा— आह ! मर्द क्यों नहीं समझ पाते औरत के
अन्तस में धधकते अँगारे, अन्तर-निहित रहस्य, कामनाएँ
और उनके दायरे ।

कोलकाता, 08 अप्रैल 1992