सीता: एक नारी / चतुर्थ सर्ग / पृष्ठ 1 / प्रताप नारायण सिंह
सहकर थपेड़े अंधड़ों के अनगिनत रहता खड़ा
खंडित न होता काल से, बल प्रेम में होता बड़ा
पहले मिलन पर प्रीति की जो अंकुरित थी वह लता-
लहरा उठी पा विपिन में सानिघ्य-जल की प्रचुरता
सिंचित हुई संपृक्त दोनों के हृदय-अनुभूति से
बढ़ने लगी थी नित्य-प्रति लगकर मृदुल उर-भीति से
लेकिन प्रदाहित वात से थी समय के मुरझा गई
पहले हरण फिर सति-परीक्षा, नित्य विपदाएँ नई
विच्छोह के बीते दिवस, हिय-गात अपने फिर मिले
अनुकूलता पाकर पुनः उसमें नए पल्लव खिले
फिर प्रस्फुटित होकर कली थी एक मुस्काने लगी
अनुपम, अलौकिक गंध से तन-प्राण महकाने लगी
आयाम यह बिल्कुल नया मेरे लिए व्यक्तित्व का
था कल्पना से भी परे अहसास वह मातृत्व का
आनंद का सागर हिलोरें मारने उर में लगा
प्रभु-प्रेम का शशि था झुका; सुख-ज्वार था उठने लगा
अंतस्थ, वहिरत राम ही, मैं राम-मय थी हो गई
फिर पल्लवित होने लगीं हिय मध्य इच्छाएँ कई
सानिध्य का ऋषि, मुनिजनों के; प्रकृति के संस्पर्श का
पाना शुभाशीर्वाद निज संतान के उत्कर्ष का