भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ये अँधेरे भी रहेंगे / प्रताप नारायण सिंह
Kavita Kosh से
Pratap Narayan Singh (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:57, 7 नवम्बर 2019 का अवतरण
ये अँधेरे भी रहेंगे
और उजाले भी रहेंगे
तप्त मरुथल में क्षुधा के
चिलचिलाती धूप होगी
तौलती पौरुष मनुज का
मृगतृषा बहु-रूप होगी
और कुछ लटके हुए
ऊपर निवाले भी रहेंगे
कुछ कहेंगे नित्य ही
बेरंग मौसम की कथाएँ
कुछ उकेरेंगे सदा ही
पतझड़ों की चिर व्यथाएँ
ताप पीकर, कुछ बसंती
गीत वाले भी रहेंगे
कुछ पहनकर नाचते
नरमुंड के गलहार होंगे
क्रन्दनों के शोर में
मदमत्त से हुंकार होंगे
बीच उनके लोग
पक्षी-श्वेत पाले भी रहेंगे
घोष "सच हरिनाम" के संग
कारवाँ बढ़ता रहेगा
इन मसानों का धुआँ
यूँ ही सतत चढ़ता रहेगा
पालने नित सोहरों के
साथ डाले भी रहेंगे