बाड़ी / जोशना बनर्जी आडवानी
वे बिना पासवर्ड के दुस्साहसिक
उछाल भरकर धमाल करते हैं
वे अपने खिलौनो से बना लेते
हैं दुनिया की सबसे शानदार रेल
वे जानते हैं दूध आधा पीकर बाकी
किस जगह फैलाया जा सकता है
और खुद के लिये मिले सूखे मेवो को
पालतू कुत्ते के मुँह मे कब डालना है
वे उल्टी चप्पलें तो पहन लेते हैं पर
नाक की सीध में चलकर स्टूल को
ठेल ठेल कर आखिरकार पहुँच ही
जाते हैं फ्रिज के ऊपरी दरवाज़े तक
ये अकेले कभी भी नहीं चलते हैं
इनके साथ चलते हैं इनके दिमाग
में बैठे तीतर ,सारस ,भालू ,बन्दर
जो माहिर होते हैं सफारीपन में
क्या करिश्मा है कि आटे की लोई
से बत्तख, गिलहरी, खरगोश बनाकर
दोस्ती निभा लेते हैं और ड्रॉईंग रूम
के कालीन को डस्टबिन बना लेते हैं
इनका मुस्कुराना भर होता है कि
छुप जाते हैं छोटे बड़े सभी उत्पात
ठीक वैसे ही जैसे छुपा दी जाती है
बड़ी ही लंपटताई से पगार में रिश्वत
इनका दिमाग एक तकनीकी यान है
एक ऐसी बाड़ी है जिसके दीवार नहीं
इनकी हँसी मे छुपी हैं कई टूटी चीज़े
और आँखों में नई खोज की हलचल
छोटे बच्चो की बाड़ी रहस्य है ....