Last modified on 17 नवम्बर 2019, at 23:25

शाख़ पे इक चिड़िया बैठी थी / नासिर परवेज़

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:25, 17 नवम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=नासिर परवेज़ |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KK...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

शाख़ पे इक चिड़िया बैठी थी
उस के लब पर ख़ामोशी थी

आज मैं दिन भर चुप चुप सा था
आज तबीअत बोझल सी थी

मेरे घर की दीवारों से
बे ख़्वाबी सर फोड़ रही थी

एक तिरे ही कान न फूटे
चीख़ मिरी किस किस ने सुनी थी

दिल की आग बुझाता कैसे?
दरियाओं में आग लगी थी

कमरे में और क्या रक्खा था
ख़ामोशी थी, चीख़ रही थी

सब का अपना दुख था नासिर
सब को अपनी अपनी पड़ी थी