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प्रेमचंद / महेन्द्र भटनागर

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ओ कथाकार !
युग के सजग, मुखरित, अमिट इतिहास,
जन-शक्ति के अविचल प्रखर विश्वास !
दृष्टा थे भविष्यत् के ;
धनी भावों-विचारों के !
अमर शिल्पी
मनुज-उर के
अकृत्रिम, सूक्ष्म-विश्लेषक !
सितारे-तीव्र
मेघाच्छन्न जीवन के गगन के,
रूढ़ियाँ-बंधन शिथिल तुमने किये
अपनी अरुक, दृढ़ लेखनी के बल !
सभी ये थरथरायीं
काल्पनिक, प्राचीन, झूठी, जन-विरोधी
धारणाएँ, मान्यताएँ ;
धर्म-ग्रन्थों से बँधी
निर्जीव, मिथ्या, शून्य की बातें
अनोखी, खोखली
जो हो रही थीं प्रगति-बाधक !
पतित साम्राज्यवादी-शक्तियों का
नग्न-चित्राण कर
बनायी भूमिका
जनबल अथक-संघर्ष की !

ओ अमर साधक !
सतत चिंतित रहे तुम
स्वर्ग धरती को बनाने !
अभय सामाजिक सुधारक,
युग-पुरुष !
तुमको, तुम्हारी ज्योति को
क्या ढक सकेंगी काल-रेखाएँ ?
नहीं अब शेष साहस जो
अँधेरा सिर उठाए !
तुम प्रगति-पथ की
नयी ज्योतित दिशा का
मार्ग-दर्शन कर रहे हो !
प्राण में बल भर रहे हो !:
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