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बेरोज़गार पिता की बेटी / मदन कश्यप

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उसकी आँखों में हमेशा एक उजाड़ होती है
जेठ की गर्मी में झुलसी हुई झाड़ियाँ और खरपतवारों वाली
तपती भूमि जैसी व्याकुल निर्जनता
बाल रूखे-रूखे होते हैं और चेहरे पर झाँइयों की उदासी

वह न ज़ोर से बोलती है
न दूर तक देखती है
पुराना स्कूल ड्रेस मटमैला हो चुका है
जिसे वह शिक्षकों और सहपाठियों की ही नहीं
अपनी नज़रों से भी बचाती रहती है

थैला अपनी चमक और रँग खो चुका है
उसमें जगह-जगह टाँके लग चुके होते हैं
जूतों की, बस, पाँव में टिके भर होने की हैसियत बची होती है

वह सबके बीच चलती है
सबसे छिपती हुई

उसे दौड़ना और गिरना मना है
ऐसा हुआ तो अनर्थ हो जा सकता है
फट जा सकता है स्कर्ट
टूट जा सकता है थैले का फीता
या जूते का तल्ला

सबसे अलग जाकर खोलती है पुराना टिफ़िन बॉक्स
कभी-कभी तो ज़रूरी एकान्त के अभाव में अनखुला ही रह जाता है
वह भूख से कहीं ज़्यादा लोगों की नज़रों से डरती है

समय पर फ़ीस नहीं जमा करने के लिए
अक्सर सुनती है झिड़कियाँ
कभी-कभी आ जाती है नाम कटने की भी नौबत
तब समझदार माता-पिता कुछ करते हैं
और उसे झाड़ू-पोंछा के काम में लग जाने से बचा लेते हैं

वह कभी-कभी बगल में बैठी किसी बच्ची से पानी माँगती है
पानी उसके पास होता है तब भी
कातरता उसके चेहरे पर इस तरह छलक रही होती है
कि अक्सर छुपाने के चक्कर में
वह खुद उसमें छुप जाती है

बेरोज़गार पिता की बेटी के जीवन में सबकुछ तदर्थ है
कल का कुछ भी पता नहीं
वर्तमान ही इतना त्रासद है कि भविष्य की ओर क्या देखे
फिर भी कभी-कभी वह सोचती है
कि शायद उसके पिता को मिल जाए कोई काम
और उसके घर में भी आ जाएँ कुछ पैसे
बरसात नहीं तो छींटे ही सही
ऐसा कुछ सोच कर कभी-कभी ख़ुश हो लेती है
बेरोज़गार पिता की बेटी !
 
2015