भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
वर्जनाएँ / सुमित्रानंदन पंत
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:20, 21 नवम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सुमित्रानंदन पंत |अनुवादक= |संग्र...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
तुम स्वर्ण हरित अन्धकार में
लपेटकर
कई रेंगने वाली
इच्छाएँ ले आते हो,
जिनकी रीढ़
उठ नहीं सकती !
इनका क्या होगा
मैं नहीं जानता !
पिटारी खोलते ही
टेढ़े-मेढ़े साँपों-सी
ये
धरती भर में
फैल जाती हैं !
कौन शक्ति इन्हें बान्धेगी
कौन कला समझाएगा,
कौन शोभा अलँकृत करेगी ?
ये मधु-तिक्त ज्वलित-शीत
वर्जनाएँ हैं ! —
जो अब मुक्त हो रही हैं !
तुम्हारी सुनहली अलकों की
ये फूलमाल बनेंगी,
इनकी मादन गन्ध पीकर
मृत्यु जी उठेगी ।
तुम स्वर्ण हरित अन्धकार में
लपेटकर
अमृत के स्रोत
ले आए थे,
जो हृदय शिराएँ बन
समस्त अस्तित्व में
नवीन रक्त
सँचार कर रही हैं !