भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
चुनिंदा मुक्तक-1 / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:56, 27 नवम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गरिमा सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह= }}...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
दर्द होता रहा हम छिपाते रहे।
बेवजह बेसबब मुस्कुराते रहे।
नोट बेशक हजारों के हम ना हुये-
बनके सिक्के मगर खनखनाते रहे।
हूँ तेरे इश्क में पागल, फितूरी पर नहीं हूँ मैं।
अधूरी ही मिली तुझसे, अधूरी पर नहीं हूँ मैं।
समझ अब फर्क लहज़े में तेरे मुझको भी आता है-
जरूरत तो मैं हूँ तेरी ,जरूरी पर नहीं हूँ मैं।
सिर्फ तुझको पढ़ेंगे ये मेरे नयन।
सिर्फ तुझको लिखेंगे ये मेरे नयन।
एक सूरत तेरी इनमें ऐसी बसी-
तेरे दर्पण रहेंगे ये मेरे नयन।