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हम नदी के दो मुसाफ़िर / शिवम खेरवार
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हम नदी के दो मुसाफ़िर,
हैं भले अनजान लेकिन!
क्यों न दोनों साथ मिलकर
इस नदी को पार कर लें।
क्यों न मिलकर हम परस्पर,
प्रीति का इक साज़ छेड़ें,
सरगमी संगीत के सँग,
नेह की आवाज़ छेड़ें,
नेह की दो ईंट को हम, गेह का आधार कर लें।
इस नदी को पार कर लें...
खिंच रही मुख पर पहेली,
व्यर्थ ही सुलझा रहे हैं,
क्यों अकेले बूझकर हम,
अर्थ को उलझा रहे हैं,
नेह की मुस्कान पढ़कर, दो हृदय अब प्यार कर लें।
इस नदी को पार कर लें...