जंगल क़ैद / कुमार विकल
आख़िर वे जंगल को चले गये
और अभी तक लौट कर नहीं आए
हम उन के लिए क्या कर सकते हैं !
केवल उनकी कविताएँ बंद कमरों में पढ़कर रो लेते हैं
और उनके ख़ाली घोड़ों के लौटने का इंतज़ार करते हैं
मगर जंगल जब जेल में बदल जाता है
तो सवारों की तरह घोड़े भी नहीम लौटते
केवल कुछ टापों की आवाज़ें लौट आती हैं .
हम उन टापों की आवाज़ों से भाग कर कहाँ जाएँ
‘हम’ जो उन्हें सिवान तक पहुँचाने गये थे लालटेन लेकर
सुनो, ज़रा सुनो
अँधेरे में टापों की आवाज़ों में सुनो
कोई कविता गुनगुना रहा है
नहीं, कोई कविता सिसक रहा है.
यह सिसकी आवाज़ में है
इस कविता की कौन—सी भाषा है
यह तो आदमी के शरीर पर अत्याचार की लिपि में लिखी हुई भाषा है
यह सिसकी एक क़द्दावर स्वस्थ आदमी के शरीर की
नींद के लिए छोटी—सी प्रार्थना है.
किंतु जंगलों में प्रार्थनाएँ कौन सुनता है
इसलिए वे टापॊं की आवाज़ों के साथ
सिसकियाँ बन लौट आती हैं
हम उन सिसकियों से भाग कर कहाँ जाएँ.
अपने घरों की खिड़कियाँ बंद कर लें
अपने कानों में सीसा भर लें
अपनी पत्नी और बच्चों के साथ
सुरक्षित बिस्तरों में दुबक जाएँ !
हम उनके लिए कुछ नहीं कर सकते
केवल तकियों के नीचे मुँह रखकर सो सकते हैं.
आख़िर हम उन्हें सिवान पर क्यों छोड़ आए
और ख़ुद अपनी लालटेनों के साथ
अकेले घरों
को लौट आए.