Last modified on 14 दिसम्बर 2019, at 13:45

पहिलका / कुमार वीरेन्द्र

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:45, 14 दिसम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार वीरेन्द्र |अनुवादक= |संग्रह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

वैसे तो बाबा
पोते-पोतियों में कोई फ़र्क़ नहीं
करते, लेकिन पोतियों को कोई मार दे, धधक उठते; उनके डर से, कोई
हाथ नहीं उठाता; कभी हम भाई-बहन लड़ जाते, हमें ही डाँटते, ई और
बात, रूठ जाते, बहनों संग वे भी मनाते; घर में अक्सर
बाबा को ही देखता, जो पोतियों को भी
कान्धे बैठा, मेला क्या, खेत
बधार घुमाते

बेटे-बहुएँ अपने
बच्चों का नाम कुछ भी रखें, बाबा एक अलग
ही नाम रखते, उसी से हमें पुकारते, और सोनाझरी हो या भोला बाबा, दूर से ही, दौड़ते चले
आते; वे किसी तिलक-बारात में मिठाई का ठोंगा मिलता, खाते नहीं बगली में रख लेते आते
पहले पोतियों को फिर पोतों को देते; जब पूछता, 'पहिले उनको काहे देते
हो', कहते, 'बस ऐसे ही'; ई और बात, बहनें बड़ी हों, छोटी
पहले मिलने के बाद भी पहले नहीं खातीं
एकटुकी हमारे मुँह में डाल
फिर खातीं

जब कहता
'देखो बाबा, तुम पहिले देते हो तबहुँ
पहिले नाहीं खातीं, हमें खिलाती हैं'; इस पर बरबस उन्हें अपनी बहनें याद आ
जातीं; अपने बचपन के बारे में, कुछ बताते, कई बार उनकी आँखें लोरा जातीं
और इतना ही कह पाते, 'ई जो बहिनियाँ होती हैं न, बेटा, जाने
कवन माटी की, नइहर में हों, भाई को खिलाती
हैं पहिलका कौर, हों ससुराल में
याद आते भाई की

खा नहीं पातीं पहिलका

कौर...!