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मेरी अन्धेरी रात / नंदकिशोर आचार्य
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अन्धेरा घना हो कितना
देख सकता हूँ मैं
उसको
कभी अन्धा लेकिन कर देता है
सूरज
कभी पाँखें जला देता है
बेहतर है मेरी अँधेरी रात
न चाहे रोशनी दे वह
दीखती रहती है
आकाश में गहरे कहीं मेरे
वह तारिका मेरी ।