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धूप पूस की / दीनानाथ सुमित्र

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धूप पूस की शरमाई-सी
बाद देर के क्यों आई री
 
खेत-पथार जरूरी जाना
घास- पात करना होता है
पेट जगत का बड़ा खजाना
इसे हमें भरना होता है
बनो नहीं तुम दुखदाई री
धूप पूस की शरमाई-सी
बाद देर के क्यों आई री
 
मौसम से विद्रोह करो तुम
सही समय पर जल्दी आओ
दुनिया हमें सताती रहती
ऊपर से तुम नहीं सताओ
मत बन इतनी हरजाई री
धूप पूस की शरमाई-सी
बाद देर के क्यों आई री
 
अभी रंग लो तुम बसंत से
नाचेगी गर्वीली खुशबू
आनन्दित हो लोग हँसेंगे
आनन्दित हो जाएगी तू
कर देना तू भरपाई री
धूप पूस की शरमाई-सी
बाद देर के क्यों आई री