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देश अपना / दीनानाथ सुमित्र

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हरिक जन का,
हरिक मन का देश अपना
 
इन्द्रधनु है तितलियों-सा
तितलियाँ हैं इन्द्रधनु-सी
छत्र बन कर गगन छाता
धरा भरती स्नेह कलसी
सरित, सर, सागर
सपन का देश अपना
हरिक जन का,
हरिक मन का देश अपना
 
लोरियाँ गाती हवायें
कपोलों को चूमती हैं
बालियों में दूध भरकर
खूब फसलें झूमती हैं
विहँसते, हँसते
सुमन का देश अपना
हरिक जन का,
हरिक मन का देश अपना
 
गंग जैसा हार पहने
स्वर्णदेहा-सी सतह है
शाम इसकी लता जैसी
पुष्प-सी इसकी सुबह है
राम, नानक सम
रतन का देश अपना
हरिक जन का,
हरिक मन का देश अपना
 
स्वर्ग से सुंदर बनाना
यहाँ के जन चाहते हैं
स्वर्ग द्वारे आ रहा है
तान जैसी आहटें हैं
गीत, गजलों का,
भजन का देश अपना
हरिक जन का,
हरिक मन का देश अपना