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अँधेरा छटा ही नहीं / दीनानाथ सुमित्र

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चाँद आँगन में मेरे खड़ा था मगर
मेरे घर का अँधेरा छटा ही नहीं
 
अब न ताशीर उनके जवाबों में है
है सवालों की ताकत बढ़ी की बढ़ी
हुस्न को इश्क की अब जरूरत नहीं
है जवानी बड़ी शोख औ नकचढ़ी
मंत्र जो भी मिला था उसे पुण्य का
बेखबर सो रही थी रटा ही नहीं
चाँद आँगन में मेरे खड़ा था मगर
मेरे घर का अँधेरा छटा ही नहीं
 
रेत से ही भरी आज प्यासी नदी
जल कहीं से कभी भी बहा ही नहीं
बेवफा बादलों का तरीका यही
चुपके-चुपके गया, कुछ कहा ही नहीं
सच को देखा सुना, सच परेशान था
जो बरसती नहीं वह घटा ही नहीं
चाँद आँगन में मेरे खड़ा था मगर
मेरे घर का अँधेरा छटा ही नहीं
 
तेरे वादे थे झूठे, न वादे करो
सुख की शैया बिछी खूब सोया करो
हम परेशान थे हम परेशान हैं
हमसे तुमने कहा सिर्फ रोया करो
सारे संवाद तेरे भरम झूठ थे
सत्य का तेरा लîóू बटा ही नही
चाँद आँगन में मेरे खड़ा था मगर
मेरे घर का अँधेरा छटा ही नहीं
 
अब कहाँ जायेंगें, अब पुकारें किसे
कान वाला कोई अब बचा ही नहीं
जिस जगत के लिए हम परेशान हैं
उस जगत को कहा जो रुचा ही नहीं
कोई सूरज न आया इधर आज तक
भाग अपना बुरा, पौ फटा ही नहीं
चाँद आँगन में मेरे खड़ा था मगर
मेरे घर का अँधेरा छटा ही नहीं