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अब भी सावन हो / दीनानाथ सुमित्र

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तुम सुधा कलश-सी पहले थी
तुम सुधा-कुंभ सी आज प्रिये
सावन थी, अब भी सावन हो
 
थे श्याम केश अब श्वेत हुए
हिमगिरि से गंगा निकल रही
हर सुख-दुख को तुमने झेला
पर शान्त रही, कब विकल रही
मेरे सँग तुम जग-जीवन हो
सावन थी, अब भी सावन हो
 
हिîóयाँ वृद्ध हो गईं मगर
तन की कोमलता रक्षित है
अब भी मन में है चंचलता
सोने जैसा ही मन, चित है
मनभावन थी मनभावन हो
सावन थी, अब भी सावन हो
 
अधरों पर नर्म कथा चिपकी
यह आदिम प्रेम कहानी है
जो आँखों में है बसा हुआ
यह अनल मृत्तिका पानी है
मधु मिश्रित मेरा मधुवन हो
सावन थी, अब भी सावन हो