भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
सो रहीं हैं चेतनाएँ / गरिमा सक्सेना
Kavita Kosh से
सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:00, 19 दिसम्बर 2019 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=गरिमा सक्सेना |अनुवादक= |संग्रह=ह...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
समझकर भी
सो रहीं हैं चेतनाएँ
देख मानव
आज जंगल काँपते हैं
मेघ भी दो डेग
चलकर हाँफते हैं
लू सदृश चलने लगीं
माघी-हवाएँ
नदी का मुश्किल
समंदर तक पहुँचना
और सागर-ज्वार
का रह-रह उमड़ना
देखकर चुप-चाप
बैठीं हैं दिशाएँ
कंठ में है प्यास
उपवन जल रहा है
युग-युगों का जमा पर्वत
गल रहा है
पर तनिक ना स्वार्थ की
गलती शिलाएँ