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हार का ठहराव / गरिमा सक्सेना

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सुर्ख लावा हो गए हैं पाँव
तपती रेत में

गाँव ने हैं कर्ज बोये
मौत की फसलें उगाईं
अंजुरी-भर प्यास तड़पीं
आस ने चीखें दबाईं

आज फिर सपने पड़े हैं
पाँव मोड़े पेट में

हाँक फिर वैसी लगी है
पक्ष बस प्रतिपक्ष में है
सत्य पर सब जानते हैं
स्वार्थ केवल अक्ष में हैं

शाकभक्षी फिर मरेंगे
समय है, आखेट में

चेतना, बदलाव क्या बस
ताज का बदलाव ही है
जीत कैसी, जीत है यह
हार का ठहराव ही है

देखना फिर उग न आएँ
नागफनियाँ खेत में