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मुन्ना के मुक्तक-5 / मुन्ना पाण्डेय 'बनारसी'

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तुम गीत बन रही हो मेरी कल्पना में ढलकर।
कोई चाँद खिलखिलाया है मेघ से निकलकर।
बलखाती कोई नदिया, तेरी चाल की कहानी-
कंचन के जैसी काया निकली अनल में जलकर।

मैं पत्थर हूँनहीं, सीने में मैं भी पीर रखता हूँ।
किसी टूटे घरौंदे की तरह तकदीर रखता हूँ।
भले मैं ताज दे सकता नहीं मुमताज को लेकिन-
किसी राँझा के जैसे मैं भी कोई हीर रखता हूँ।

देखकर गुलज़ार गुलशन फिर भ्रमर आने लगे हैं।
देखकर कलियों का खिलना लार टपकाने लगे हैं।
दुर्दिनों में कौन किसको पूछता मुन्ना जगत में-
माल देखा जेब में तो मीत मँडराने लगे हैं।

आँख से आँखें लड़ी, तब चार आँखें हो गईं।
देखने को एक टक, लाचार आँखें हो गईं।
दिल की घंटी बज गई तब तो मुनासिब था यही-
डूब जाने के लिए मझधार आँखें हो गईं।

मौसम बड़ा सुहाना, झोंके थे हल्के-हल्के।
अरमान बह रहे थे, सब आँसुओ में ढल के।
यादों के दिल में ऐसे शोले दहक रहे थे-
रातें गुजारी हमने करवट बदल-बदल के।

ज़िन्दगी में अनगिनत ही चोट खाई दोस्तों।
मुस्कुराने की बड़ी क़ीमत चुकाई दोस्तों।
आग के दरिया में कूदा आँख का पानी पिया-
इस तरह से ज़िन्दग़ानी मुस्कराई दोस्तों।।

जहाँ पर गुलबदन होती, वहीं गुलफाम होते हैं।
हसीनों की गली में रोज़ कत्लेआम होते हैं।
बहारों का मचल जाना, चटक जाना ये कलियों का-
कली देती है आमन्त्रण, भ्रमर बदनाम होते हैं।