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आजकल किरदार की क़ीमत नहीं / हरि फ़ैज़ाबादी
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आजकल किरदार की क़ीमत नहीं
मैं तुम्हारी राय से सहमत नहीं
एक मुँह से बात दो करते हो तुम
और कहते हो मेरी इज़्ज़त नहीं
गिर चुका है वाक़ई अब वो बहुत
आदमी पर ये ग़लत तोहमत नहीं
वो तुम्हें पहचानता है, ठीक है
फिर भी अच्छी साँप की सोहबत नहीं
उम्र लग जाती है पाने में इसे
एक दिन का खेल ये शोहरत नहीं
दिल तुम्हारा किस तरह से चल रहा
साँस लेने की अगर फ़ुरसत नहीं
चाँद बिल्कुल पास था उसके मगर
‘कल्पना’ के साथ थी क़िस्मत नहीं