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लड़ऽ अन्हरिया से / मणिशंकर प्रसाद

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केकरा से कहियो अपन मन की बात
के पतिअयतो अगर करबो गलबात ?
बीत गेलो दिन आउ अइलो हऽ रात
गुम होलो रोशनी अन्हरिया के साथ ।
जनबे हे नञ अब आदमी के आदमी
सूझऽ हे नञ अब रस्ता आउ बियार,
भटक रहल हे आदमी एने से ओने
फैलल हे चारो तरफ घोर अन्हार ।
बैठ गेलो चारो तरफ कोना में
सबके निगरे वाला खुखरी शैतान,
बाँट देतो कुल के जात आउ धरम में
बना देतो तोहनी के निट्ठा हैवान ।
तइयो तो लड़ऽ हऽ रोज-रोज अपने में
खोजऽ हऽ अलग-अलग अप्पन मकान,
निगल जइतो अन्हरिया पतों नञ चलतो
मेट जइतो तोहनी के नामो-निशान।
आबऽ सब मिलके लड़ऽ अन्हरिया से
लाबऽ अपन घर में एक सुन्नर बिहान,
झक-झक लौकतो सूरज के रौशनी
बन जइबा तोहनी सब नेक इन्सान।