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अंकुर बनकर / रामेश्वर काम्बोज ‘हिमांशु’

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मैं सूरज हूँ
अस्ताचल जाऊँगा
भोर होते ही
फिर चला आऊँगा
द्वार तुम्हारे
किरनों का दोना ले
गीत अर्घ्य दे
मैं गुनगुनाऊँगा
रोकेंगे लोग,
न रुकूँगा कभी मैं
मिटाना चाहें
कैसे मिटूँगा भला
खेत-क्यार में
अंकुर बनकर
उग जाऊँगा
शब्दों के सौरभ से
सींच-सींच मैं
फूल बन जाऊँगा
आँगन में आ
तुमको रिझाऊँगा
छूकर तुम्हें
गले लग जाऊँगा
दर्द भी पी जाऊँगा।

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