भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

मैं और वो / आलोक कुमार मिश्रा

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:28, 7 जनवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=आलोक कुमार मिश्रा |अनुवादक= |संग्...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

मैंने कहा — आओ साथ बैठो
उसने कहा — तुम अपनी सुनाते रहो
इस तरह वो करती रही
कई काम
एक साथ ही तमाम ।

मैंने कहा — तुम्हें याद है वो दिन...
बात काटकर बोली —
आजकल भूल जाती हूँ सब
और सूखने को डाल दिया डोर पर
वही मेरा दिया रुमाल ।

मैं उठा, कहा — चलता हूँ
वह कुछ नहीं बोली
बस देखती रही
इस तरह
इस बार भी मैं
और थोड़ा सा
रह गया वहीं ।