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प्रदूषण / शीला तिवारी

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मानव कब जगेगी तेरी चेतना
शून्य हुई क्या प्रकृति प्रेम वंदना
प्रदूषण महात्रास बन खड़ा
हर जीव के जीवन में
हम गर्वित आलोढ़ित
भौतिकवादी प्रागंण में।
हवा श्वास बिन तड़प रही
हाय! ये कैसी विडम्बना
जहरीला धुआँ, विषैले धूलकण
लील रहा निलाम्बर प्रतिक्षण
प्रदूषित हवा मूल स्वभाव को खो रही
जीवन गति चल कैसे पाएंगे
वसंती हवा, सावन फ़िज़ा की
मनोरम गीत रचित न हो पाएंगे
धरा हरियाली बिन विकल रही
हाय! ये कैसी दुर्नीति
कटते पेड़, उजड़ते जंगल
छिनता पशु-पक्षी का शरण स्थल
हरियाली धरती का गहना
हर वृक्ष धरा का ललना,
वृक्षों की हत्याएं हो रहे नित्य
मानव खुद रच रहा बर्बादी के कृत्य
मिट्टी उर्वरता खो रही
बंजर भूमि, पोषित हो रही
श्रृंगार अचला से छिन रही
मानुज कृत्रिमता को ढो रहा
नदियाँ प्यास से जूझ रही
हाय!ये कैसी मुश्किल घड़ी
कल-कारखाने, शहरों के कचरे
नदियों में बह बनते विषैले
कल-कल निर्मल बहते जल
नौकायन मीठी गीत संग
नदी तीरे दार्शनिक, धार्मिक पाठें
भूल रही ये मधुर यादें
मत भूलो तुम मानव हो
प्रकृति के रचयिता नहीं
प्रकृति का दोहन शोषण कर
वापस करना हम भूल गए
आने वाली पीढ़ी को
प्रदूषण मुक्त संसार दो।