Last modified on 24 जनवरी 2020, at 20:56

अभिलाषा / सरोज कुमार

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:56, 24 जनवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=सरोज कुमार |अनुवादक= |संग्रह=शब्द...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

प्रभु
तुम्हें प्रणाम करते हुए
क्या मै अपने ही सपनों को प्रणाम नहीं करता?

तुम तो शाश्वत हो
पर क्या मैं अनंत काल
मात्र भक्त बना रहने को अभिशप्त हूँ?
तुम निश्चित ही शाश्वत हो
पर क्या मेरी नियति भी शाश्वत है
जैसा हूँ वैसा ही बने रहने की?

तुम मानों या न मानों प्रभु,
तुम्हें प्रणाम करते हुए
मैं वहाँ नहीं रह जाता
जहाँ प्रणाम के पहले था!
मेरे प्रणाम
तुम्हारी मेरी दूरियाँ कम करते चलते हैं!
और तूम देखना
मैं एक दिन
अपने प्रणामों की ताकत से
तुम्हारे-मेरे फासले कम करते-करते
ठीक तुम्हारे निकट आकर खड़ा हो जाऊँगा!
बताओ,तब भी क्या मुझे
हमेशा की तरह
केवल आशीर्वाद ही दोगे
या गले भी लगा लोगे?