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प्रदर्शनी के गुलाब / सरोज कुमार

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श्वेत, लाल, पीले, नीलाभ
गुलाब ही गुलाब ही गुलाब,
घुँघराली, दल पर दल पंखुरियाँ!
काँटों की सीढ़ियाँ, हरी-हरी पत्तियाँ!
एक-एक पौधे से एक-एक डाली
कटी-छँटी सज-धज नखराली!
रंगों की रति का मनचीता त्योहार
नयनाभिराम मोहक अलौकि संभार!

मैंने प्रदर्शनी के गुलाबों से पूछा:
कैसा लग रहा है?
कोई टिप्पणी?
बोले-यहाँ क्या निहारते हो
बंद-बंद हॉल में पंडाल में,
वहाँ आओ, जहाँ हम चहकते हैं
महकते हैं, क्यारियों के थाल में!
पर आप वहाँ क्यों आएंगे
हमको ही टहनियों से काट-छाँट लाएँगे,
सुन्दर होने की सजा देंगे,
फिर सजाएँगे!

अब हम है भी क्या?
आपके सौंदर्यबोध की सेवा में
आपके अवलोकनार्थ
अपने ताजा शव हैं!
आप हमें निहारकर अपने घर जाएँगे
पर हम तो अब
अपने घर नहीं लौट पाएँगे!

अपनी जड़ों से कटने के बाद
कोई कहीं का नहीं रहता!
देखना दिखाना कुछ घंटों का
फिर आप ही हमें
घूरे पर पटक आएंगे!