भूखे पेट की रात लम्बी होगी / अनिल मिश्र
यह चौराहा है या इसे एक रंगमंच कहें
दिन भर यहां किनारे बैठा एक मोची होगा
जो जूतों की मरम्मत करते- करते
समय की मरम्मत करने लगेगा
तिजहरी कहीं उस तरफ अपने पैर सीट पर रखकर
सुस्ताते रिक्शा चालक हठयोग करेंगे
और शाम होते-होते सपने गुब्बारे बनकर
अपनी ओर खींचेंगे गरीब बाप का हाथ
तभी बेबसी की सुई बताएगी
इच्छाओं और सपनों की हकीकत
यह सब करते तीरथराज के कमंडल से निकलेगी
आधी रोशन आधी स्याह रात
और मजदूर गमछा बिछा कर सो जाएंगे फुटपाथ पर
भूखे पेट की रात लम्बी होगी
इस बीच कचरा घरों में कुत्ते
जूठन पर जमाने के लिए अपना हक
एक इंसान पर टूट पड़ेंगे
बहुत से किरदार अपनी आंखों में भरे कीचड़
अदृश्य हो जाएंगे किसी गली में
धीरे-धीरे कहीं से टहलती हुई सुबह पहुंचेगी
और अलग अलग दिशाओं से प्रकट होंगे
खंडहरों के ध्वंस और नव-निर्माण के नायक
यहां चीनी और नमक की तरह बिकेगा श्रम
ग्राहक बनकर आएंगे
सेठ साहब के वफादार
बड़ी-बड़ी योजनाओं की डिजाइन लिए हाथ
शहर के नक्शे में ठिठका
इच्छाओं की पहाड़ी में बीचों बीच उगा हुआ एक पेड़ है
जो आश्वासन देता है
कभी दिन पलट जाने का
वह अपनी ओर बुलाता है
चिकने मुलायम हाथ
और लोहे की सींकों और ईंटों से लड़ने के लिए
हाथों को खुरदरा कर वापस भेज देता है
सारी घटनाओं से बेपरवाह वो शांत रहते हैं
उनकी आंखें देखती जाती हैं
उगता हुआ प्रभात ढलते हुए दिन
एक समर जो जिन्दगी के बाहर से लगातार
अन्दर की ओर चला आता है
और वो कुछ कर नहीं पाते
कल जो एक सौ पचास आए थे
आज दो तीन कम हो जाएंगे
किसी मंजिल से अंधेरी गुफाओं में गिरते हुए
स्वेद बिंदुओं की जगह
रक्त से रंगते हुए धरती का आंचल
अचानक छूट जाएंगे हमेशा के लिए
जिंदगी के हाथों से उनके हाथ
स्कूल की किताबों में जब पढ़ाई जाएगी
बादशाह की सौंदर्य प्रियता
वास्तु विदों के नाम से मशहूर की जाएंगी भव्य इमारतें
उनकी आत्माएं इसी चौराहे पर इकट्ठा होकर
देखेंगी अपनी संतानों को
इतिहास की किताबों से फिर- फिर छले जाते हुए