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घुंघरू बज उठते हैं / निशा माथुर

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ख्वाब की तश्तरी से क्यूंकर ऐसे लम्हे भी गुजरते है
झिंगुर-सी बजती रातों में फिर घूंघरू बज उठते है।
सेज की चादर पर जब भी कोई कनुप्रिया सजती है
बादलों से संधि करती, बिजलियों से मांग भरती है।
भाग्य का देकर दिलासा, उसकी चूङियाँ हंसा लेती हैए
खनक खनक कर नाहक ही किस्मत को रिझा लेती हैं!

सुरमुई शाम के साये तले, जब कई तार सितार बजते है
झिंगुर-सी बजती रातों में फिर क्यूं घूंघरू बज उठते है।
होठ लहू का रंग लगाये और केश ख्वाहिशो का गजरा
माथे गम की सिलवटें, वह झुकती पलकें जूगनू का कतरा।
भीगी आंखों से दपर्ण में कैसे, अपनों के अक्स झांकती हैं,
बंद अंधेरी कोठरीयों में फिर खुद की रूह वह तलाशती है।

इन सियासी दुकानों में जब, खासे रिश्ते।नाते बिकते हैं
झिंगुर-सी बजती रातों में फिर वहीं घूंघरू बज उठते है।
गाती गजलें आंसुओं के सागर पर, किश्तिया चलाती हैं
साज सरगम राग मल्हार, शापित रूदन नाद करती हैं।
दस्तक देती यादें परिचय का कैसे आंगन तलाश करती है
घूंघरू बज उठते पैरों तले खुद की लाश दफन करती हैं।