गर्भिणी / निशा माथुर

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वो तिल तिल, तन मन से हार दौङती,
गर्भिणी! चिंतातुर सी, बढता उदर लिये!
झेलती चुभते शूल भरे अपनों के ताने,
भोर प्रथम पहर उठती ढेरों फिकर लिये!

एक बच्चा हाथ संभाले, एक कांख दबाये
कुदकती यूं अपनो की चिंता को लिये!
तरा उपर तीसरे पर रखती पूरी आंख,
जो चिंघता पीछे साङी का पल्लू लिये!
झिल्ली लिपटे मांस लोथङे की चेतना,
उदर को दुलारती सैकङो आशीषें दिये!

दिन ब दिन फैली हुयी परिधि में संवरती,
विरूप गौलाई में क्षितिज का सूरज लिये!
नये जीवन को स्वयं रक्त से निर्माण करती,
फूले पेट की चौकसी में नींदे कुर्बान किये!
धमनियों शिराओं से जीवन रस पिलाती,
नवांग्तुक के लिये संस्कारों का लहू लिये!

फुर्सत क्षणों में ख्यालों के धागे को बुनती,
थकन से उनींदी सूजी आंखे हाथ लिये!
हदयस्पन्दन, ब्रह्माड से आकार को बढ़ाती,
संशय के मकङजालों की जकङन लिये!
तीनों आत्माजाओं के मासूम चेहरे देखती,
कहाँ जायेगी? गर फिर बेटी हुई, उसको लिये!

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