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तपन / पद्मजा बाजपेयी

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दग्ध है चारों दिशाएँ, आग में सब जल रहे है,
बह रहा है लहू किसका?
पैर के नीचे सभी के, विश्व का इतिहास रोता,
हर सदी की विवशताएँ, काल के काले क्षणों ने,
छिन ली है लूट ली है ज्योति ही जिनकी,
हो गये हैं बेसहारा असहाय वे, अब कौन देगा उनको सहारा।
नित्य घटती घटनाएँ, द्रोपदी की लाज लुटती है,
शिक्षिका जहर खा लेती बेचारी, वृद्ध नई शादी रचाते है,
कन्याएँ अनब्याही ही रह जाती, नवजात नाले में बह जाती है,
ट्रयूब बेबी झगड़े है, दिशा का बोध किसको कराये?
सभी की चाल निराली है, स्व आग में सब जल रहे है,
देश की बाजी लगाते है, धर्मांधता के नाम पर,
हजारों खून होते है, तपन कितनी इस जग में,
नहीं कोई समझ पाया, प्रगति के इस नए पथ पर,
मानवता खड़ी गुमसुम सिसकती है, आँसू बहाती है।