एक कॉमरेड का बयान / प्रभात मिलिन्द
गोरख पाण्डेय के लिए
हम ऐसे शातिर न थे
कि इस तरह मार दिए जाते ।
हमारे मंसूबे ख़तरनाक तरीक़े से बुलन्द थे
इसलिए हमारा मारा जाना तय था…
हमें कुछ ख़्वाब को अंजाम देना था
बचे हुए वक़्त में बची हुई ईंट-मिट्टी से
हमें बनानी थी एक मुख़्तलिफ़ दुनिया
हम इसलिए भी मारे गए
कि हमने उन फ़रेबियों का एतबार किया
जिन्होंने खींचकर पकड़ रखी थी रस्सी
और उकसाया हमको बारम्बार
उसपर पाँव रखकर चलने के लिए
लेकिन वे तो तमाशबीन लोग थे..
उनको क्या ख़बर होती
कि नटों के इस खेल में
धीरे-धीरे किस तरह दरकता जाता है
आदमी के भीतर का हौसला
और बाहर जुम्बिश तक नहीं होती ।
मारे जाने के वक़्त
जिनकी आँखों में खौफ़ नहीं होता
वे नामाकूल किस्म के लोग माने जाते हैं
वे मारे जाने के बाद भी
संशय की नज़र से देखे जाते हैं ।
इसके बावज़ूद अगर हम चाहते
तो मारे जाने से शर्तिया बच सकते थे…
अगर हम नहीं होते इतना निर्द्वन्द्व और भयमुक्त
अगर हम नहीं करते इस विपन्न समय में प्रेम
अगर हम नहीं खड़े होते वक़्त के मुख़ालिफ़
अगर हम खुरच फेंकते आँखों के ख़्वाब
अगर हम ढीली छोड़ देते अपनी मुट्ठियाँ
और गुज़र जाते पूरे दृश्य से…नि:शब्द
नेपथ्य से बोले गए उन जुमलों पर
होंठ हिलाने का उपक्रम करते हुए
जो दरअसल किसी और के बोले हुए थे
तब शायद हम मारे जाने से बच सकते थे !