Last modified on 16 फ़रवरी 2020, at 23:56

धूप-दीप की गंध सुहानी / रेनू द्विवेदी

सशुल्क योगदानकर्ता ५ (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 23:56, 16 फ़रवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=रेनू द्विवेदी |अनुवादक= |संग्रह= }} {...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

धूप-दीप की गंध सुहानी,
नित उमंग भरती है!
उदयाचल की पावन बेला,
मन हर्षित करती है!

वेद-मन्त्र के उच्चारण से,
दिव्य सृष्टि हो जाती!
सूर्य रश्मि के मधुर छुवन से,
वसुधा नित मुस्काती!

उषा लालिमा रात्रि देखकर,
यो लगता डरती है!
उदयाचल की---

मुक्ता जैसी लगती शबनम,
फूलों के अधरों पर!
एक खुमारी चढ़ जाती है,
उपवन में भँवरों पर!

कल-कल ध्वनि नदियों की प्रतिदिन,
पीर सभी हरती है!
उदयाचल की---

सिंदूरी पूरब के पर्वत,
अतिमनमोहक लगते!
इनके पीछे सूरज दादा,
छिपते और निकलते!

चिडियों के कलरव से जैसे,
पुलक गयी धरती है!
उदयाचल की---