भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
कैसे हो सुनवाई / राहुल शिवाय
Kavita Kosh से
Rahul Shivay (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:44, 18 फ़रवरी 2020 का अवतरण ('{{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=राहुल शिवाय |अनुवादक= |संग्रह= }} {{KKCat...' के साथ नया पृष्ठ बनाया)
आँगन में दलदल फैली है
दीवारों पर काई
घर ही घर का दोषी हो जब
कैसे हो सुनवाई
पूरे घर में हरा-भरा है
बस तुलसी का पत्ता
चार रोटियाँ का पाया है
घर ने जीवन भत्ता
आह-रुदन में बदल गई है
तुलसी की चौपाई
झुकी कमर ले पड़ी हुई है
उधड़ी खाट पुरानी
हँसी ठहाके उत्सव लगते
बीती एक कहानी
शहर गई खुशियों की आखिर
कौन करे भरपाई
जो कल छत थे, नई मंजिलों
को वे ढ़ाल रहे हैं
नए-नए सपनों को आँखों में वे
पाल रहे हैं
और नीव दब रही बोझ से
झेल रही तन्हाई