हे ईश्वर तुम कितने निर्दय।
तुमको हरपल पूजा मैंने
तुमको हरपल सम्मान दिया,
हर खुशियों में, त्योहारों में
है सिर्फ तुम्हारा ध्यान किया l
पर समझ न सके पीर मेरी-
कैसा निष्ठुर हो गया समय l
हे ईश्वर तुम कितने निर्दय l
तुम समझ नहीं पाए मेरे
उर अंतर के अरमानो को,
तुमने दूषित कर डाला है
इस जीवन के वरदानों को l
जब प्रेम-समर्पण खोता है-
मन हो जाता बिल्कुल निर्भय l
हे ईश्वर तुम कितने निर्दय l
हे भाग्य विधाता आज कहो
मैंने कैसा था पाप किया ?
क्या पुण्यों का है मोल नहीं
क्या मिथ्या तेरा जाप किया ?
बोलो इस पीड़ा के दायक-
कैसे बोलूँ अब तेरी जय l
हे ईश्वर तुम कितने निर्दय l